नचिकेता का अभीष्ट: आत्मानुसंधान - जीवन- मृत्यु विज्ञान का रहस्य यमराज (Nachiketa's Life - Death Secter with Yamraj )
कठोपनिषदमें नचिकेतोपाख्यानमानव जीवन के प्राप्तव्य पर अद्वितीय एवं सम्यक् प्रकाश डालता है। 84लाख योनियों में मानव योनि अत्यंत दुर्लभ है। यह योनि तो देवादिकोंतक को दुर्लभ है। बडे भाग मानुष तनु पावा,सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थनिगावा,कह कर तुलसी ने भी इसे महिमा मंडित किया है। अर्थात् मानव देह की सार्थकता को समझना आवश्यक है, अन्यथा आत्मा का योनि भ्रमण अनवरत जीवन-मृत्यु क्रम से चलता रहेगा।
वाजश्रवसउद्दालक नचिकेताके पिता हैं। नचिकेता पिता को सर्वस्व दान रूपी यज्ञ में अक्षम, क्षीण काय, गर्भ धारण करने के सर्वथा अयोग्य गौएंदान में देते देख कर विचलित हो जाते हैं। वह समझते हैं कि यह तो पिता के यज्ञ में वैगुण्य हैं। पिता उद्दालकदोग्धागौओंको मेरे नाम पर रख रहे हैं। पिता के सर्वस्व में तो पुत्र भी संपत्ति बनता है। अत:धर्म का पालन करते हुए मेरा भी दान होना चाहिए, अन्यथा पिता का अनिष्ट होगा और वह निम्न योनियों या नरकादिमें जा सकते हैं। दान वहीं श्रेष्ठ होता है, जिसमें दान पाने वाले का भी कल्याण हो, अन्यथा दानदाता का निश्चय ही अकल्याण होता है।
धर्मभीरु नचिकेताबारम्बार पिता से प्रश्न करता करता है :पिता श्री मैं भी आपका धन हूं,आप मुझे किसे देंगे। तीसरी बार पूछने पर क्रोध वश पिता ने कहा :तुझे मैं मृत्यु को देता हूं। आवेश में उद्दालकअशांत होते हैं, किंतु दृढव्रतीतथा सत्यपरायण नचिकेताउन्हें शांत कर पिता की आज्ञा लेकर यमलोक पहुंचते हैं।नचिकेतायमराज की अनुपस्थिति में यम सदन में पहुंचने के कारण यथोचित आतिथ्य से तीन दिवसों तक वंचित रहते हैं। अत:यमदेववापस आते ही उनका समुचित आतिथ्य-सम्मान करते हैं, तथा नचिकेताको मनोनुकूल तीन कोई भी वर मांगने का वचन देते हैं। नचिकेताके प्रथम दो वरों को पूर्ण कर यमदेवप्रसन्न होते हैं, किंतु नचिकेताके तीसरे वर-याचन से वह असहज होते हैं। नचिकेतातीसरे वर के रूप में जीवन- मृत्यु विज्ञान का रहस्य जानना चाहते हैं। मृत्यु के उपरांत आत्मा का क्या अस्तित्व होता है? नचिकेताका अभीष्ट है, आत्मानुसंधान।यमराज कहते हैं, आत्मतत्व अत्यंत सूक्ष्म ज्ञान है, इसे तो देवता भी नहीं जानते। यमराज इस प्रश्न के स्थान पर नचिकेताको अनेकानेक प्रलोभन देते हैं। स्वप्नवत् समृद्धि की अपरिमित राशियां, मनवांछितपूर्णायुष्यके पुत्र-पौत्रादि का परिवार एवं कुटुंब, विशालकाय साम्राज्य, मनोनुकूल भोग हेतु स्वर्गिक सौन्दर्य की रमणियां, हाथी-घोडे, गौएंआदि भौतिक आनंदानुभूति की समस्त सामग्रियां यमराज नचिकेताको देने का प्रलोभन पूर्ण आश्वासन देते हैं, किंतु नचिकेतादृढ निश्चयीजिज्ञासु हैं, वह अपना वर छोडने को तैयार नहीं होते। यमराज के सिवाय ब्रह्मांड में इस मृत्यु-विज्ञान के रहस्य को जानने वाला दूसरा है कौन? ऐसा गुरु पाकर नचिकेताऐसा जिज्ञासु अपना हठ छोडे तो क्यों? क्या नश्वर सांसारिक आनंद के लिए? अविचल वैराग्य एवं विषयानुगतआनंद से पूर्णत:विरत तथा परमार्थिकनिष्ठा से ओत-प्रोत शिष्य पाकर यम देव परमात्मतत्व एवं मृत्युंजयी-विज्ञानपर विवेचन प्रारम्भ करते हैं।
नचिकेता!भौतिक जीवन में दो मार्ग हैं। श्रेय मार्ग तथा प्रेय मार्ग श्रेयश्च प्रेयश्चमनुष्यमेस्तौ।कल्याण पथ का साधक भोगासक्तनहीं हो सकता और सांसारिक भोगानुरागीकभी भी कल्याण-मार्गी नहीं हो सकता। परमात्यतत्वका साक्षात्कार मानव जाति का अभीष्ट है। एकाक्षर ॐउसका वाचक परिपूर्ण स्वरूप है। इस ब्रह्मस्वरूपॐकार में नाम एवं नामी का अभेद है। साधक के लिए यह पूर्णत:अनुशीलन योग्य है। आत्मा अविनाशी, शुद्ध एवं नित्य है। वह शरीर एवं संसार में सर्वथा निर्लिप्त रहता है। हां शरीर उसका संवाहक रथ है, किंतु रथ का स्वामी,अर्थात् रथी आत्मा है। इंद्रियां इस रथ के घोडे हैं, बुद्धि सारथि है, हमारा मन इंद्रिय रूपी घोडों की लगाम है। यदि शरीर रथ का स्वामी जीवात्मा अपने बुद्धि सारथि को वश में रखते हुए उसे इंद्रियों के मन रूपी लगाम को साध कर जीवन यात्रा श्रेय मार्ग पर करे तथा विषयानुगतप्रेय मार्ग का परित्याग कर दे, तो परमात्मतत्व का सहजता से साक्षात्कार हो जाता है :
आत्मानॅं,रथिनंविद्धिशरीर šरथमेवतु।बुद्धिंतुसारथिंविद्धिमन: प्रग्रहमेवच॥..
नचिकेता!आत्मा का वास्तविक स्वरूप हैं :अणोरणीया यान्महतोमहीयानइसका सर्व व्यापकत्व-परमात्मा अणु से भी छोटा परमाणु में व्याप्त शक्ति स्वरूप है तथा महाकाशसे भी बडा है। परमात्मा प्रवचन या बुद्धि या श्रवण का विषय नहीं हैं, नायमात्मा प्रवचनेनलभ्यो,न मेधयान बहुनाश्रुतेन-यमे वैषवृणुतेतेन लभ्य: जिसे वह स्वयं चुन ले, वही उसे जान सकता है। सो जाने जेहिदेहुजनाई कृपा ही तो है, किंतु कृपा करने में वह भेदभाव नहीं करता। वह तो केवल जीवात्मा का निश्चछलतापूर्ण मन एवं विशुद्ध सात्विक आचरण देखकर उस पर अपनी कृपा की अविरल वर्षा प्रारंभ कर देता है :
नाविर तो दुश्चरितान्नशान्तोना समाहित:।
ना शांत मानसोवापिप्रज्ञानेनैवमाप्नुयात॥
(कठोपनिषद्)
कोई दुराचरण करता रहे, अशांत बना रहे, इंद्रियों को संयमित न रखता हों, अतृप्त अशांत मन हो, ऐसा पुरुष सूक्ष्म ज्ञान से भी उस परमात्मा का प्राप्त नहीं कर सकता। अर्थात् सांसारिक व्यवहार में दुराचरण एवं पारलौकिक जीवन का दिखावा साथ-साथ नहीं चल सकता।
इंद्रियों के घोडे जीवन यात्रा मनमाने दुराचारी मार्ग पर न करें। मृत्यु विज्ञान का रहस्य, पूर्ण सदाचरण, संयमित मन, बुद्धि तथा इंद्रियों द्वारा सत् चित् आनंद स्वरूप परम पुरुष परमात्मा का ध्यान,मनन तथा निदिध्यासनसे जीवात्मा को स्वत:उद्घाटित हो जाता है। यही नचिकेताको यम का उपदेश है। यही मृत्युंजय-विद्या है।
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